सहिस के सामने 2014 का इतिहास दोहराने तो कालिंदी के लिए परंपरा बरकरार रखने की चुनौती, जुगसलाई में पहली बार गठबंधनों के बीच लड़ाई, अंदर पढ़ें विस्तृत रिपोर्ट
Patamda: झारखंड में पहली बार जुगसलाई सीट पर 2024 में गठबंधन बनाम गठबंधन की लड़ाई है। 2014 में पहली बार राज्य में भाजपा ने अपने स्वाभाविक सहयोगी दल आजसू के साथ मिलकर विधानसभा का चुनाव लड़ी थी और जुगसलाई सीट पर एनडीए प्रत्याशी के रूप में आजसू के रामचंद्र सहिस की करीब 25 हजार के बड़े अंतर से जीत हुई थी। उस चुनाव में 2009 की भांति झामुमो और कांग्रेस अलग-अलग चुनाव मैदान में थी। इसमें आजसू के रामचंद्र सहिस को करीब 82 हजार, झामुमो को मंगल कालिंदी को करीब 55 हजार जबकि कांग्रेस के प्रत्याशी दुलाल भुइयां को 42 हजार वोट मिले थे। 2019 में झामुमो और कांग्रेस साथ मिलकर लड़ी तो परिणाम उनके पक्ष में आया और गठबंधन प्रत्याशी मंगल कालिंदी को करीब 88 हजार वोट मिले जबकि अलग-अलग लड़ने के कारण भाजपा प्रत्याशी मुचीराम बाउरी को करीब 66 हजार जबकि आजसू प्रत्याशी रामचंद्र सहिस को करीब 46 हजार वोट मिले।
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इस बार की परिस्थिति कई मायनों में अलग है। इस बार की लड़ाई एनडीए गठबंधन बनाम इंडिया गठबंधन के बीच है और झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (जेएलकेएम) के मैदान में मजबूती खड़े होने से मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। इस बार जुगसलाई सीट पर जहां रामचंद्र सहिस के समक्ष 2014 का इतिहास दोहराने की चुनौती है वहीं मंगल कालिंदी के लिए अपनी पार्टी की परंपरा को बरकरार रखने की। इस सीट के लिए आजसू कार्यकर्ताओं की ओर से जहां पिछले विधानसभा चुनाव में झामुमो (महागठबंधन) को मिले 88 हजार के मुकाबले भाजपा को मिले 66 हजार और आजसू के 46 हजार को मिलाकर 1 लाख 12 हजार वोटों के आंकड़ों का तर्क दिया जा रहा है। दूसरा यह कि 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए प्रत्याशी विद्युत वरण महतो को जुगसलाई विधानसभा क्षेत्र से करीब 1 लाख 39 हजार वोट मिले थे जबकि इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी समीर कुमार मोहंती को 83 हजार यानी कि 56 हजार की बढ़त एनडीए को मिली थी। वहीं झामुमो कार्यकर्ताओं की ओर से 2014 में आजसू (एनडीए) को मिले 82 हजार की तुलना में झामुमो के 57 हजार और कांग्रेस के 42 हजार को मिलाकर 99 हजार वोटों के आंकड़ों को दर्शाया जा रहा है। इसके अलावा उनका दावा है कि अगर जेएलकेएम प्रत्याशी विनोद स्वांसी को 40 हजार से अधिक वोट आया तो मंगल कालिंदी को आसानी से जीत मिल जाएगी क्योंकि कैंची से केला को ही अधिक नुकसान होने की संभावना है। यहां दोनों ही गठबंधनों के कार्यकर्ता व समर्थक अपने-अपने मजबूत दावे पेश कर रहे हैं जिससे राजनीति में रुचि रखने वाले लोग यह अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं कि आखिर इस बार जुगसलाई सीट पर जीत किसकी होगी।
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जुगसलाई सीट कैसे बनी झामुमो की परंपरागत सीट:
इस सीट पर पहली बार 1990 में झामुमो के मंगल राम ने जीत दर्ज की थी और बाद में उनके राजद में शामिल होकर चुनाव लड़ने से दुलाल भुइयां को झामुमो के टिकट पर चुनाव लड़ने का मौका मिला और उन्होंने पहली बार जीत भी दर्ज की। फिर 2000 में उन्होंने राजद से भाजपा में शामिल होकर प्रत्याशी बने मंगल राम को दुलाल भुइयां ने 46 हजार के बड़े अंतर से हराकर दूसरी बार इतिहास रच दिया। तीसरी बार उन्होंने 2005 में झामुमो से भाजपा में गए हाराधन दास को कड़े मुकाबले में करीब साढ़े 3 हजार के अंतर से हराकर जीत की हैट्रिक लगाई थी। इस प्रकार लगातार 4 बार की जीत से यह सीट झामुमो की परंपरागत सीट मानी जाने लगी। हालांकि 2009 के चुनाव में इस सीट पर आजसू के रामचंद्र सहिस ने झामुमो प्रत्याशी रहे दुलाल भुइयां को करीब 7 हजार वोटों के अंतर से हराकर तीसरे स्थान पर धकेल दिया जबकि भाजपा प्रत्याशी राखी राय ने करीब 39 हजार वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहीं।
जब-जब कांग्रेस साथ रही झामुमो की आसान हुई जीत
जुगसलाई सीट की इतिहास की बात करें तो यहां 2000 में सर्वाधिक मतों के अंतर से जीत हासिल करने के बाद तत्कालीन झामुमो विधायक दुलाल भुइयां के खिलाफ क्षेत्र में विरोधी लहर तेज होने लगी थी और 2004 में भाजपा ने झामुमो के ही नेता रहे हाराधन दास (अब दिवंगत) को पार्टी में लाकर 2005 में टिकट दिया और मजबूती से लड़ाया। लेकिन उस चुनाव में झामुमो के साथ पहली बार कांग्रेस का गठबंधन होने से दुलाल भुइयां को जीत मिली भले ही मतों का अंतर काफी कम (करीब साढ़े 3 हजार) रहा। लेकिन 2009 में अकेले ही मैदान में होने से झामुमो को हार का सामना करना पड़ा क्योंकि विजयी प्रत्याशी रामचंद्र सहिस (आजसू) को करीब 42 हजार, भाजपा की राखी राय को 39 हजार, झामुमो के दुलाल भुइयां को 35 हजार व कांग्रेस की रीतिका मुखी को 17 हजार वोट मिले। अगर उस बार भी गठबंधन होता तो शायद झामुमो को हराना संभव नहीं होता क्योंकि दोनों को प्राप्त मतों को जोड़ने से कुल 52 हजार होता है। 2019 में दोनों दलों के एक बार फिर साथ आने से जहां झामुमो ने 10 साल बाद वापसी की वहीं 2014 में कांग्रेस का साथ नहीं मिलने की वजह से हार का सामना करना पड़ा था। कुल मिलाकर देखा जाय तो झारखंड बनने के बाद अब तक झामुमो के लिए दो बार कांग्रेस की भूमिका संकट मोचक की रही है।